धूप की इस तपिस में, छाँव की तलाश में थे हम
यह पता न था, कोई मंजिल मिल पायेगी या नहीं
गर्मियों का मौसम है और मई महीने का दूसरा दिन
सूरज की तीखी तेज़ में झुलस रहे थे हम
तलाश थी ऐसी जगह की जहाँ बैठ कर कुछ खा सके हम
तलाश तो पूरी हुई लेकिन प्यास न हुई कम
निकले थे लंच पर लग रहा था हूँ काम पर
प्रकृति की गोद में, पेड़ की छाँव में, चार दोस्त थे हम
गप्पे मारना, मजाक करना, फोटो खीचना मस्ती में थे हम
जब्कि पिकनिक पर नहीं, असाइनमेंट पर थे हम
बिताना था पूरा एक घंटा, धूप में थे हम
धूप की इस तपिस में गुम थे हम
प्रकृति की छाँव में प्यास न हुई थी कम
पूरा एक घंटा न बीता पाए हम
धूप की इस तपिस में जल रहे थे हम
एक नयी सोच के साथ वापस हुए हम.
धूप और छाँव...!
ReplyDeleteकभी खिली धूप को मचलता है मन तो कभी छाँव की तलाश में भटकता है...!
बहुत सही कहा आपने| कहीं धूप कही छांव पर दोस्तों के साथ समय का पता ही नहीं चलता है| आप ऐसी ही सुन्दर रचनाएं अब शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं|
ReplyDelete''ना सही धूप'' जैसी रचनाएँ पढ़ व् लिख सकते हैं